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सिद्धार्थ से बुद्ध तक: एक महात्मा की प्रेरक गाथा

बुद्ध

हिंदू धर्म में वैशाख पूर्णिमा तिथि का विशेष महत्व है। इस दिन बुद्ध पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। वैदिक पंचांग के अनुसार, हर साल वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। इसी दिन बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था। इस साल बुद्ध पूर्णिमा का पर्व 23 मई 2024 (गुरुवार) को मनाया जाएगा। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस दिन भगवान विष्णु और गौतम बुद्ध की पूजा करने से विशेष लाभ प्राप्त होता है।

सिद्धार्थ से बुद्ध तक का सफर

रात्रि की शांति को भंग करते हुए, सिद्धार्थ गौतम अपने सारथी छन्ना के साथ महाराजा शुद्धोदन के राजप्रासाद से बाहर निकलने लगे। जैसे ही सुबह की रोशनी फैलने लगी, वे अनोमा नदी के तट पर पहुंचे। नदी के पार एक अन्य राज्य और घना जंगल था। दोनों ने सावधानीपूर्वक नदी पार की। सिद्धार्थ ने अपनी तलवार से अपने बाल काटे और तलवार, अपने बाल, और अपने प्रिय घोड़े कंथक की लगाम छन्ना को सौंपकर उसे वापस लौटने का निर्देश दिया।

29वें वर्ष में समस्त जीवों के हित में जीवन की नई यात्रा

सिद्धार्थ गौतम के जन्म पर ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि वह या तो एक महान सम्राट होंगे या महान संन्यासी। इस भविष्यवाणी से बचाने के लिए राजा शुद्धोदन ने राजप्रासाद में सभी ऐश्वर्य और सुख-सुविधाओं को इकट्ठा किया और राजकुमार के बाहर जाने पर प्रतिबंध लगाया। परंतु, यह सिद्धार्थ गौतम वही थे जो तपती दोपहर में खेतों में काम करने वालों को देखकर या पक्षी के तीर लगने पर करुणा से भर जाते थे। उन्होंने अपने जीवन के 29वें वर्ष में सबके कल्याण के लिए एक नई यात्रा की शुरुआत की।

निरंजना नदी के तट पर तपस्या और ध्यान

बुद्ध

कई आश्रमों में ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी गौतम की जिज्ञासा शांत नहीं हुई। लगभग 6 वर्षों के पश्चात, वे निरंजना नदी के तट पर तप और ध्यान करने लगे। तीन महीने बाद, पांच अन्य भिक्षु भी उनके साथ जुड़ गए। एक रात, गौतम ने महसूस किया कि इस प्रकार शरीर को कष्ट देने से कोई लाभ नहीं है। सुबह उठकर उन्होंने नदी में स्नान किया और उरुवेला गांव की ओर चल पड़े। रास्ते में कमजोरी के कारण वह बेहोश हो गए। उसी समय, सुजाता नामक एक स्त्री पूजा के लिए जंगल की ओर जा रही थी।

जब गौतम ने पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान में लीन हुए

एक संन्यासी को बेहोश देखकर, सुजाता ने अपने हाथ की खीर उनके मुंह में डाल दी। धीरे-धीरे सिद्धार्थ को होश आया और वे जंगल में अपनी तपस्या की जगह पर लौट आए। जब अन्य पांच भिक्षुओं को पता चला कि गौतम ने खाना-पीना शुरू कर दिया है, तो वे उन्हें छोड़कर चले गए। कुछ दिन बाद, गौतम ने पीपल के वृक्ष के नीचे समाधि लगाई। चार सप्ताह बाद, ध्यानावस्था में उन्हें संसार के दुखों और उनके निवारण के विषय में ज्ञान प्राप्त हुआ। वहां से चलकर, वे वाराणसी के सारनाथ के मृगदाय में आए।

ब्रह्मचर्य का अर्थ यहां व्यभिचार न करना

पहले तो उन पांचों ने सोचा कि बुद्ध से बात न की जाए, पर उनके चेहरे की आभा और वाणी में विश्वास ने उन्हें बुद्ध की बातों को सुनने के लिए मजबूर किया। उनको नए मार्ग के बारे में बताते हुए बुद्ध ने कहा, “हमें यह जानना चाहिए कि संसार में हर तरफ दुख है। इस दुख का कारण है। इस दुख या दुख के कारणों का निवारण संभव है और अंत में निवारण का यह मार्ग अष्टांगिक मार्ग है। यही सद्धर्म है। इस सद्धर्म पर चलने के लिए सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य (ब्रह्मचर्य का अर्थ यहां व्यभिचार न करना है) का पालन जरूरी है।”

बुद्धम शरणम गच्छामि…

भिक्षुओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, “सभी संस्कार अनित्य हैं। अप्रमादपूर्वक अपने लक्ष्य की प्राप्ति में लगे रहो।” यह कहकर गौतम बुद्ध ने अपनी आंखें मूंद लीं। गगन में वैशाख की पूर्णिमा अपनी पूरी चांदनी बिखेरती हुई शांति का संदेश दे रही थी। कहीं एक आवाज वातावरण में गूंज रही थी- बुद्धम शरणम गच्छामि, धम्मम शरणम गच्छामि, संघम शरणम गच्छामि।

भगवान बुद्ध किसका ध्यान करते थे?

भगवान बुद्ध ने अपने जीवन के बहुत समय तक ध्यान और तापस्या की। उन्होंने अपने ध्यान को विभिन्न ध्यान आधारित तकनीकों पर अभ्यास किया, जिसमें मुख्य ध्यान का एक प्रमुख स्थान था। भगवान बुद्ध का मुख्य ध्यान विपश्याना या शमथ के रूप में जाना जाता है, जिसमें उन्होंने अपने मन को एकग्र करने और उसे निर्मलता की स्थिति में लाने का अभ्यास किया। उन्होंने अपने ध्यान को अनेक प्रकार की साधनाओं और उपायों के माध्यम से प्रदर्शित किया, जिनमें उपनिषदों के अनुसार आत्मा के अध्ययन, समयों के उपयोग का ध्यान और आत्म-निग्रह शामिल थे। उन्होंने अपनी ध्यान प्रणाली को अपने अनुयायियों के साथ साझा किया और इसे ध्यान, समाधि और प्रज्ञा के विकास में महत्वपूर्ण साधना माना।

बुद्ध किस पेड़ के नीचे बैठे थे?

आम के पेड़ के पास जाने और उसे गिराने के बाद, बुद्ध ने अंजीर के पेड़ (फ़िकस रिलिजियोसा) को चुना। अंजीर के पेड़ को बोधि वृक्ष के नाम से जाना जाने लगा क्योंकि बुद्ध को ऐसे ही एक पेड़ के नीचे 49 दिनों तक ध्यान करने के बाद ज्ञान (बोधि) प्राप्त हुआ था।

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